शुक्रवार, 4 जून 2010

ग़ज़ल

 जिन ख्वाबों से नींद उड़ जाए +  ऐसे ख्वाब सजाये कौन
इक पल झूठी  तस्कीं  पा कर  सारी रात  गवाए कौन
यह तन्हाई यह  सन्नाटा दिल को मगर समझाए कौन
इतनी काली रात में आखिर  मिलने -मिलाने आये कौन 
फूल खिले तो चीख उठे सब  सहमे  चमन  में आग  लगी
हाय यह महरूमों की बस्ती  इसमें फूल खिलाये कौन
इक -दो धोखे हों तो यारों  दिल रखने को खा भी लें
यह तो उसकी आदत ठहरी  हर दिन धोखे खाए कौन